न दिन ही अपने न रात ही अपनी,ये कैसा
तमाशा हैं उसको जिसे अपना कहते हैंवो
भी अपना नही और किसी की क्या,बात करें,
न वक्त अपना न ही कुछ और मुझे ठगों की
भाषा आती नही और उसे और कुछ पता नही
यंहा मातम भी जीवन और वँहा जीवन भी मताम
ये कैसी बयार चली है,तेरे दौर की तू ही बता तू
देव है या दानव, कैसी रस्मों से बंधा है तू,क्या
तेरे पास भी अपना पता खो गया है, कौन सी
दुनिया का रखवाला है क्यों आज तक तुझे मेरी
सुध नहीं,मैं कितना कहती हूँ सुन मेरी की मुझ को
समर्थ वान बना क्या तेरे लिए भी ये संभव नहीं तो
छोड़ फिर भगवान देव या दानव या ख़ुदा के पचड़ों
को, चल इंसान ही बन के देख ले मेरी तरह दर्द को जी
मेरी तरह तकलीफ़ को महसूस कर कभी तो सुन कभी
तो मुझे साबित कर की तू मेरा सहायक है कभी तो
बात की तू मेरा दुश्मन है, चल फिर कुछ तो निभा ले
दोस्ती की आड़ में कितने बदले लोगो मुझे तो मालूम
नही और तू हर कोई हिसाब नहीं ये तकलीफ मेरी है
इसलिए तूम जानाते नही और तूम्हे तकलीफ नही
इसलिए तूम मेरा दर्द भी समझ नहीं रहे, पर मैं तुम्हे
समझ रही हूं इसलिए कहती हूँ तुम मुझे जानते नही।
मल्लिका जैन🎇