यहां हर तरफ इंसानियत का बसेरा है,फिर भी जाने क्यों
कोई इतना अकेला है, में तो मैं ही हूं,पर मेरा वजूद किस
तरह खोया है, में जीने कि कोशिश करती हूं रोज फिर मुझे,इस तरह परेशानी क्या है,कोई कुछ और कोई कुछ
सब के अपने ही रिश्ते नाते,आखिर ये माजरा क्या है
एक मै हूं कि सोचती हूं,तमाम बातें,फिर भी इन सब का
हासिल क्या है, व्यवस्थाओं की बात करें किससे, यहां
अपना घर जला के फूंक भी दे तो भी, कुछ होता नहीं
जान कर बहुत कुछ भी,साथ कोई देता नहीं,सच छोटा
हो जाता हैं,नहीं तो इंसानियत को ही मारने का बीड़ा उठा लेते हैं,मातम का बाज़ार सज़ा कर मुस्कुराहट बिखेर
देते हैं, आसू की आड़ में सपनो को सजा रहे उनकी भी
हस्ती क्या,आखिर में कोई रास्ता बनाते हैं,फिर नई चाल
चल देते हैं,कभी छल तो कभी बल,कुछ काम न आया तो
हकीकत के रिश्तों में प्यार का भी तमाशा बना देते हैं, गुस्सा आता है मुझे बहुत फिर भी ख़ामोश हो जाती हूं,
क्योंकि,किस को क्या कहूं पत्थर मारू तो भी शीशे,
टूट जाएंगे,बचा के रखू तो भी अपने रूठ जाते हैं,मेरे पास कुछ नहीं फिर भी मुझ को ही डरा रहे,अपनी सत्ता
बचा ने को मुझ पर ही अधिकार जता रहे,मेरी अन्नत दुनिया में स्वागत है आप सब का चलिए देंखे फिर कौन
किसको आजमा रहे, में तो बस बोल रही हूं आप तो
अपना ही अंज़ाम तय नहीं कर पाते, कैसी और किसकी
बंदगी सब अंधे बहरे लगते हैं,ये तो खुद अपने के भी
अपने नहीं ,कितनी सफाई से मुझ को एक दौर में भेज
देते है और खुद अपना पता हटा देते हैं,और रास्ते फिर
भी अजनबी है बेगाने तो सब है मगर कोई बात हो तो
सही, अजनबी,रास्ते फिर से निकल जाते है 💐
मल्लिका जैन