और कितना गीरोगे जितने की चाहत में,
न मुझ को किसी की जीत से मतलब न
ही किसी की हार से बिना वजह मुझ को
बदनाम कर दिया किसी कि मदत करने
की इतनी बकवास सजा दी,की अच्छाई
को ही नीलम कर दिया,आज सच बिकता
नहीं लोग बेच देते है,ईमान खुद का नहीं,
और रुतबा,कितना रखते हैं,मेरे साथ,लड़ाई
रही नहीं,और दोस्ती निभाना किसी को आता
नहीं,सब किसी से डर जाते हैं,अपने ही चाह त
को देखते भी है,क्या,या यूं ही काम चला लेते हैं
अपने सच के साथ जीना आता नहीं और अपनी
दुनियां बनना चाहते है, यहा सवालों की जगह हैं
ही कान्हा,किसी का सच किसी का जूठ,सब फरेब
सा लगता है,मुझ से जीत नहीं पाते तो रात हो या
दिन नियम बदल देते है,फिर कोई रूप बना या तो
घर या बाहर कहीं निकल जाते हैं,किसके पास इतनी
फुर्सत है कि सच का सामना करे,अपने जितने के
लिए कतल सारे आम करते है, मौत तो तांडव रच ही
नहीं रही,जाने कोन अपना तांडव रच ना चाहता है
क्या सोचता है कोई की किसको कितना पाना है,
यहां रहो या वन्हा,फ़र्क क्या पड़ता है,जब सब को
एक ही जगह जाना है क्या मजहब के नाम,पर
स्वर्ग नरक अलग अलग बनते है,या फिर,उस सुप्रीम
से सब डर ते हैं,सोचो कि उसमे भी तो कुछ सोचा
ही होगा तब तो दुनिया को बनाया होगा,अपनी भूंख
कितनी है,या फिर किसी कब तक के सवालों से परे
कोई जहान कहीं तो होगा, तकनीक ही तो हैं,फिर
भी क्यों,सवाल अधूरे हैं,क्या किसी समय वीशेष
में ही जीत जाओगे,या फिर चुप चाप सही गलत
सब सह जाओगे,कभी आराम मिलता किसको है
और आराम के नाम पर तमाशे कितने फैला दिए
कहीं डर के कहीं जूठी सच्ची मोहब्बत के मज़मे लगा
दिए किसी को बाई तो किसी रानी किसी को राजा
किसी को क्या बनाओगे,मेरे पास तो जानकारी पूरी
नहीं,पर जिनके पास है वो कैसे जीते हैं,क्या उनके
अपने भी कभी खुश होते हैं?
मल्लिका जैन